72 साल आजादी बेमिसाल

भारत को आजाद हुए 72 साल होने जा रहे हैं। स्वतंत्र भारत के इस लंबे सफर में बहुत कुछ बदला है। जहां राजनीति की दिशा बदली है, वहीं भारत एक आर्थिक और सामरिक ताकत बनने की ओर अग्रसर है। विज्ञान के क्षेत्र में हम मंगल ग्रह तक छलांग लगा चुके हैं। आजादी से अब तक के इस लंबे सफर में कुछ बातें इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुके हैं, कुछ घाव बनकर अभी भी दर्द दे रहे हैं, तो कुछ सुनहरे भविष्य के सपने दिखा रहे हैं। आजादी से अब तक के घटनाक्रमों पर संपादकीय टीम द्वारा तैयार एक संक्षिप्त रिपोर्ट....


वर्ष हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, लेकिन इसके साथ ही असमानता, अशिक्षा, गरीबी, मुखमरी और हिंसा भी बढ़ रही है। आर्थिक और सामाजिक ढ़ांचा । चरमराने लगा है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनिश्चितताएं बढ़ रही हैं। हमने स्वतंत्रता के बाद इमरजेंसी जैसा लोकतांत्रिक संकट देखा तो मंडल |आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने जैसा सामाजिक चेतना का विस्तार भी। देश में दो बार परमाणु परीक्षण किए गए तो बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसके बाद देश भर में फैली हिंसा ने भी हमें यह सोचने पर विवश किया कि क्या सांप्रदायिकता के आधार पर देश के विभाजन के बाद भी हमने इससे कोई सबक लिया? गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का जो दंश देश झेल चुका । है वह अभी भी इस रफ्तार से बढ़ रहा है कि राजनीतिज्ञों के उकसावे के कारण जम्मू-कश्मीर जैसा सीमावर्ती राज्य भी दो अलग-अलग हिस्सों में बंट चुका है। सेना के बल पर हम इसे एक बनाए रखने में सक्षम हैं लेकिन घाटी के मुस्लिमों का मुजफ्फराबाद की ओर कूच करना, आतंकवादियों के जनाजे में बड़ी संख्या में शामिल आतंकियों को शहीद का दर्जा देना और फिर घाटी में हिसंक प्रदर्शन यह बताने के लिए पर्याप्त है कि अलगाववाद इस हद तक बढ़ चुका है कि देश के विभाजन के लिए पाकिस्तान की आईएसआई जैसी बदनाम एजेंसी को कोई खास कोशिश करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि देश बांटने के लिए हमारे अपने राजनीतिज्ञ ही काफी हैं।


घाटी में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने और फिर वापस लेने को लेकर समूचे देश में तो विरोध होता है, लेकिन घाटी से लाखों कश्मीरी पंडित पलायन करते हैं तो इस पर कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं होता और न ही संसद, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई आवाज उठाई जाती है? क्योंकि देश के सभी छोटे बड़े राजनीतिक दल अपनी सुविधा, तुष्टिकरण और वोटों की राजनीति से उपर उठ ही नहीं पाते हैं।



देश ने 2002 में गुजरात में भयंकर सांप्रदायिक हिंसा और मुस्लिम समुदाय के सदस्यों की हत्याओं का दौर देखा, लेकिन अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाले अपराधों पर कोई लगाम नहीं लगी? यही बात राजनीतिक, जाति और आर्थिक कारणों से लगातार बढ़ती हिंसा पर भी लागू होती । इनके रोकथाम का कोई उपाय भी नजर नहीं आता और कोई ऐसा सेफ्टी वाल्व भी नहीं दिखता जोकि इन प्रवृत्तियों पर कारगार तरीके से नियंत्रण कर सके। वैसे मोटे तौर पर स्वतंत्रता के बाद भारत में जो प्रमुख प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं। हैं भारत में तेजी से बढ़ती सांप्रदायिकता और जातिवाद। हिंदुत्व के नाम पर बढ़ रही ताकतें चुनावों तक ही सीमित नहीं हैं वरन् ये देश के सामाजिक और आर्थिक जीवन में भी बाधाएं खड़ी कर रहे हैं। वहीं देश की राजनीति में जाति की भूमिका भी पिछले दो दशकों में बढ़ी है।


आजादी के सत्तर साल बाद भी भारत अनेक ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जिनसे वह औपनिवेशिक शासन से छुटकारा मिलने के समय जूझ रहा था। अनेक ऐसी समस्याएं भी हैं जो आजादी के बाद पैदा हुई हैं और गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं।


 


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