कहीं मोदी सरकार के लिए चक्रव्यूह न बन जाए संभावित आर्थिक संकट!

अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ती खनिज तेल की बढ़ती कीमतों के साथ ही देश में भी तेल की कीमतों में रोज वृद्धि हो रही है. इतना ही नहीं, डॉलर के मुकाबले रुपया भी लगातार कमजोर होते हुए 73 के पार चला गया है. वित्तीय संस्थान आईएलएंडएफएस (IL&FS) की पतली हालत और सरकार द्वारा उसे बचाने की कवायद के डर से शेयर बाजार भी हिचकोले खा रहा है. अब सवाल यह उठता है कि क्या मोदी सरकार बिगड़ते हालात को संभालने में नाकाम साबित हो रही है? अगर वास्तव में ऐसा है तो 2019 के लिहाज से यह मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी है.



आज ही नरेन्द्र मोदी सरकार के एक मंत्री नितिन गडकरी ने यह कहते हुए सबको चौंका दिया कि देश आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. हालाँकि गडकरी ने यह बात अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खनिज तेल की बढ़ती कीमत और उसके आयात पर भारी मात्रा में खर्च होने वाले विदेशी मुद्रा के सन्दर्भ में कही है. परन्तु इतना तो तय है कि देश के जो आर्थिक हालात बन रहे हैं वह केवल तेल का खेल नहीं है. देश की बिगड़ती आर्थिक सेहत में जितना योगदान बाहरी कारकों का है उससे कहीं अधिक घरेलू कारक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं.


बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों में गड़बड़झाला


एक तरफ जहाँ डूबे हुए भारी कर्ज़ों से सरकारी बैंक हकलान हैं वहीँ आईएलएंडएफएस जैसे गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थान भी क़र्ज़ अदायगी में फेल साबित हो रहे हैं. या यूँ कहें तो देश का वित्तीय ढ़ांचा ही चरमराने की स्थिति तक पहुँच चुका है. इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कई वर्षों के दौरान बैंकों और अन्य बड़े वित्तीय संस्थानों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुए हैं. इस भ्रष्ट कृत्य के तहत कुछ खास लोगों और कंपनियों को बिना परिणाम पर गौर किए करोड़ों-अरबों रुपए के कर्ज दिए गए. अब उन कर्जों की वापसी न होने की सूरत में कई बैंक और वित्तीय संस्थान हकलान है और सरकार उन्हें बचाने के लिए मजबूर है. सरकार अगर इन बैंकों और संस्थानों में अतिरिक्त पूंजी का निवेश नहीं करती है तो देश में गंभीर वित्तीय संकट की समस्या उत्पन्न हो सकती है. गौरतलब है कि डूबे हुए कर्ज, जिसे बैंकिंग की भाषा में गैर-निष्पादित संपत्ति यानि NPA कहते हैं, के बढ़ने से बैंकों की क़र्ज़ देने की क्षमता घट जाती है, उसके मुनाफ़े में कमी आती है और उसके नकदी का प्रवाह घट जाता है.


NPA के सम्बन्ध में पूंजीवाद के प्रबल समर्थक दावा करते हैं कि कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्र को दिए गए ज्यादातर कर्ज़ों का NPA में सबसे ज्यादा योगदान है. जबकि यह सरासर गलत है. देश के सरकारी बैंकों ने सबसे अधिक कर्ज पांच औद्योगिक क्षेत्र को दिए हैं. इनमें टेक्सटाइल, एविएशन, माइनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर तथा सीमेंट शामिल हैं. हाल के दिनों में सबसे अधिक NPA इन्हीं क्षेत्रों में बढ़ा है. स्पष्ट है कि NPA में उद्योग जगत की सबसे अधिक हिस्सेदारी है. इस सम्बन्ध में बैंकों की चालाकी तो देखिए, अपनी साख कम होने के डर से ये बैंक जब तक स्थिति कंट्रोल से बाहर नहीं होती है तब तक अपनी गलतियों को छिपाने के लिए बैलेंस शीट में संपत्ति की गुणवत्ता का भी सही आकलन नहीं करते हैं. अब जब स्थिति उनके कंट्रोल से बाहर हो चुकी तब उनके खेल का भंडाफोड़ हो गया.


कितना है एनपीए (NPA)


एक घोषित आंकड़े के अनुसार देश में कार्यरत और सूचीबद्ध व्यावसायिक बैंकों का कुल एनपीए 8.41 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो चुका है. हालाँकि यह माना जा रहा है कि यह आंकड़ा इससे कहीं अधिक ज्यादा है. एनपीए में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी 90 फीसदी है जो कि पूरी बैंकिंग व्यवस्था की संपत्ति में 70 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं. आर्थिक क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि इस समस्या से निपटने के लिए अगर जल्दी कोई उपाय नहीं किया गया तो यह आंकड़ा 20 लाख करोड़ रुपए तक पहुँच सकता है. इस एनपीए खाते में अगर बड़े बैंकों की हिस्सेदारी की बात करें तो सबसे ऊपर एसबीआई का नाम आता है जिसका एनपीए 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो चुका है. दुसरे नंबर पर 55,000 करोड़ रुपए के साथ पीएनबी का नाम आता है. 43,000 करोड़ रुपए के साथ आईडीबीआई चौथे नंबर पर है. निजी क्षेत्र के बैंकों में एनपीए में सबसे आगे आईसीआईसीआई की 43,000 करोड़ रुपए की हिस्सेदारी है और उसके बाद एक्सिस बैंक 20,000 करोड़ रुपए और फिर एचडीएफसी 7,000 करोड़ रुपए के साथ एनपीए की कतार में खड़े हैं.


आईएलएंडएफएस (IL&FS) का कमरतोड़ झटका


अब तक वित्तीय बाज़ार में बैंकों ने जो कारनामा किया है उससे सरकार उबरी भी नहीं थी कि गैर-सरकारी क्षेत्र के देश के सबसे बड़े वित्तीय संस्थान आईएलएंडएफएस ने क़र्ज़ चुकाने से हाथ खड़े कर सरकार की नींद उड़ा दी है. इस कंपनी पर कुल मिलाकर 91 हज़ार करोड़ रुपए का कर्ज है. अगर यह वित्तीय घोटाला है तो यह विजय माल्या, मेहुल चौकसी और नीरव मोदी के घोटाले से कहीं बड़ा घोटाला है. महीने में ऐसा तीसरी बार हुआ जब कंपनी लिए गए कर्ज पर ब्याज की किश्त नहीं चुका सकी. अब तक ब्याज की रकम चुकाते रहते के कारण कंपनी की माली हालत का भंडाफोड़ नहीं हुआ था. परन्तु अब हालात कंट्रोल से बाहर हो चुका है. खबर यह है कि कंपनी को अगले छः महीने में 36,000 करोड़ रुपए से अधिक मूल और ब्याज चुकाने हैं. कंपनी की दयनीय माली हालत का खुलासा तब हुआ जब कंपनी स्माल इंडस्ट्रीज डेवलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया (सिडबी) के 1000 करोड़ रुपए के कर्ज की किश्त नहीं चुका पाई.


वित्तीय क्षेत्र की शोध संस्था नोमुरा की रिपोर्ट के अनुसार आईएलएंडएफएस पर छोटी अवधि का करीब 13,559 करोड़ रुपए का कर्ज है और लंबी अवधि में उसे 65,293 करोड़ रुपए का कर्ज चुकाना है. कंपनी के साथ मुसीबत यह है कि उसने छोटी अवधि में लौटाने वाला बहुत अधिक कर्ज ले लिया जबकि उसकी उतनी अधिक आमदनी नहीं हो रही थी.


अगर आईएलएंडएफएस के इस हालात के परिणाम की बात करें तो वह बहुत ही अधिक भयावह है. इस कंपनी में एलआईसी यानि देश की सबसे बड़ी जीवन बीमा कंपनी सबसे बड़ी निवेशक है. इसके आलावा जापान की ओरिक्स कारपोरेशन और अबूधाबी इन्वेस्टमेंट अथॉरिटी की भी एक बड़ी हिस्सेदारी आईएलएंडएफएस में है. सबसे 


बड़ा खतरा तो यह है कि कंपनी ने सबसे अधिक 10,198 करोड़ का कर्ज डिबेंचर्स के रूप में लिया है और इन डिबेंचर्स में बड़ा हिस्सा जीआईसी, पोस्टल लाइफ इंश्योरेंस, नेशनल पेंशन स्कीम ट्रस्ट, जीवन बीमा कंपनियों, एम्प्लाइज पेंशन फंड और कई बड़े म्यूच्यूअल फंड का है. स्पष्ट है कि अगर आईएलएंडएफएस दिवालिया होती है तो कई कंपनी तो डूबेंगे ही, साथ में आम आदमी की बचत का भी एक बड़ा हिस्सा डूब जाएगा. सरकार खुद ही स्वीकार कर रही है कि आईएलएंडएफएस देश की वित्तीय बाज़ार का 'टाइटैनिक' है और अगर यह टाइटैनिक डूबा तो हाहाकार मचना भी स्वाभाविक है.


बहरहाल, सरकार आईएलएंडएफएस को बचाने और देश में वित्तीय आपातकाल की नौबत नहीं आने देने की कोशिश में लगी हुई है. परन्तु क्या इसे संयोग ही नहीं कहा जाएगा कि देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने में लगी नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में ये सभी मामले एक-एक कर सामने आते जा रहे हैं. डॉलर के मुकाबले रुपए का लगातार गिरना, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत का उछाल मारना, बैंकों का एनपीए कंट्रोल से बाहर होना, बड़े आर्थिक और वित्तीय घोटालेबाजों का देश से भागना आदि नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए क्या 2019 के आम चुनाव में स्वतः बनता एक चक्रव्यूह तो नहीं है? सवाल बड़ा है और अब देखना यह है कि क्या नरेन्द्र मोदी इस चक्रव्यूह को भेद लेते हैं या फिर विपक्ष के आगे नतमस्तक हो जाते हैं.