मोदी जी, हम अभी इतने अमीर नहीं हुए हैं कि ...

माना कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को विकसित देश की श्रेणी में खड़ा करने को उतावले हैं परन्तु अभी के हालात में संभव नहीं है कि देश की आम जनता ईंधन की कीमत में लगातार हो रही वृद्धि के भार को सहन कर सकें.



गौरतलब है कि पिछले कई दिनों से देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में वृद्धि जारी है. लोग नाराज तो हैं परन्तु बेबस हैं. देश की विपक्षी पार्टियाँ खुश हो रही है क्योंकि उन्हें इस मुद्दे पर आने वाले लोकसभा चुनाव में जनता का आशीर्वाद मिलने की उम्मीद बढ़ गई है. अपने कार्यकर्ताओं की हौसला अफजाई के लिए ये पार्टियाँ धरना-प्रदर्शन से लेकर देशव्यापी बंद का भी आयोजन कर रहे हैं. वहीँ मोदी सरकार अपने बचाव में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढती कीमत और तेल उत्पादक देशों द्वारा उत्पादन में कमी का हवाला देकर आम जनता का गुस्सा शांत करने में लगी हुई है. वस्तुतः आर्थिक और राजनीतिक शह-मात के इस खेल में पक्ष और विपक्ष समस्या का समाधान निकालने से इतर एक-दूसरे को राजनीतिक मोर्चे पर पस्त करने में जुटे हैं. और तेल की कीमत में हो रही वृद्धि से जो सबसे ज्यादा त्रस्त है यानि आम जनता यानि कि उपभोक्ता वर्ग, वह राजनीतिक दलों के खेल से किंकर्तव्यविमूढ़ है.


आम जनता यानि उपभोक्ता का किंकर्तव्यविमूढ़ होना स्वाभाविक भी है. एक तो जनता के पास रोजगार नहीं है और जिनके पास रोजगार है उनकी आमदनी इतनी नहीं है कि वह पेट्रोल और डीजल की ऊँची कीमत को अदा कर सके. गौरतलब है कि भारत दुनिया के सबसे अधिक खनिज तेल के खपत वाले देशों की सूची में शामिल है. भारत में केवल अमीर ही नहीं बल्कि मध्य वर्ग के साथ-साथ निम्न वर्ग भी तेल खपत में अच्छीखासी भागीदारी करते हैं. देश जिस गति से विकास कर रहा है और यातायात के साधनों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है ऐसे में यहां ईंधन तेल की खपत का बढ़ना भी स्वाभाविक है. देश में उच्च स्तर के सड़कों और हाईवे के फैलते नेटवर्क के कारण आम लोगों में दोपहिया ही नहीं बल्कि चारपहिये वाहनों को खरीदने की प्रवृति में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है. ऐसे में देश में पेट्रोल और डीजल की खपत का बढ़ना स्वाभाविक है. अब जब इनकी कीमतें आसमान छुएंगी तो आम जनता में न केवल निराशा बल्कि आक्रोश भी पैदा होगा और आज ऐसा माहौल देश में बन भी रहा है.


इन सबके बीच आम जनता के दर्द को समझने के लिए न तो केंद्र सरकार तैयार है और न ही राज्य सरकारें. जबकि सत्ता के दोनों केंद्र अपने-अपने स्तर पर आम जनता को तेल के मोर्चे पर राहत देने में सक्षम हैं. केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क में कमी करके और राज्य सरकारें वैट की दरों में कमी कर पेट्रोल और डीजल की कीमत में कमी ला सकते हैं. परन्तु ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है. आम जनता को राहत दिलाने से इतर सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जुबानी हमले कर रहे हैं और आम जनता के नाम पर उत्पात मचाने में लगे हुए हैं. प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस तेल की आसमान छूती कीमत पर हो-हल्ला तो जरूर मचा रही है परन्तु अपने शासित राज्यों में वैट की दरों में कमी करने जैसा जोखिम उठाने को तैयार नहीं हैं. 


गौरतलब है कि केंद्र और राज्य सरकारों के राजस्व का बड़ा हिस्सा पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले टैक्स से आता है. मध्य प्रदेश पेट्रोल पर सबसे ज़्यादा 40 फ़ीसदी वैट लगाता है. सभी राज्य सरकारों ने पेट्रोल पर 20 फ़ीसदी से ज़्यादा वैट लगा रखा है. गुजरात और ओडिशा को छोड़ बाक़ी राज्यों ने डीजल पर कम वैट रखा है. हालांकि गोवा में डीजल पर ही ज़्यादा वैट है. राज्यों के बजट में पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले वैट का योगदान क़रीब 10 फ़ीसदी है. इसे विडंबना ही कहेंगे कि समस्या के बावजूद  राज्य सरकारें तेल को जीएसटी के दायरे में लाने को तैयार नहीं हैं. जीएसटी की अधिकतम दर 28 फ़ीसदी है और इसमें राज्यों का शेयर 14 फ़ीसदी होगा. ज़ाहिर है वैट से मिलने वाले राजस्व में भारी कमी आएगी. इसीलिए डीजल और पेट्रोल को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है.


दूसरी तरफ़ केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क को देखें तो कुल टैक्स राजस्व में इसका हिस्सा 23 फ़ीसदी है और उत्पाद शुल्क से हासिल होने वाले राजस्व में डीजल-पेट्रोल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क का हिस्सा 85 फ़ीसदी है. इसके साथ ही केंद्र के कुल कर राजस्व में इसका हिस्सा 19 फ़ीसदी है. सितंबर 2014 से पांच बार तेल पर संघीय टैक्स में बढ़ोतरी हुई और यह बढ़ोतरी 17.33 रुपए प्रति लीटर तक गई. पिछले साल अक्तूबर में इसमें दो रुपए प्रति लीटर की कटौती की गई थी. 


भारत में पेट्रोलियम से जुड़े उत्पाद में डीजल की खपत 40 फ़ीसदी है. सार्वजनिक परिवहनों में डीजल सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होता है. डीजल के बारे में भारत में कहा जाता है कि इसका महंगाई दर पर 'ट्रिकल डाउन इफेक्ट' पड़ता है. मतलब डीजल महंगा हुआ तो ज़रूरत के कई सामान महंगे हो जाएंगे. मतलब स्पष्ट है कि मोदी सरकार ऐन-केन प्रकारेन पेट्रो पदार्थ की कीमत में वृद्धि जारी रखना चाहती है और संभवतः इसकी एक ही वजह हो सकती है और वह है दुनिया को यह दिखाना कि हम भी विकसित देशों की तरह जीवनयापन पर खर्च करने की कूबत रखते हैं. भले ही देश की जनता इस महंगाई से कराह ही क्यूँ न रही हो लेकिन आखिर यह तो मोदी सरकार की इज्ज़त का सवाल है!