अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतंत्र का 'सेफ्टी वाल्व'

क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में 'भारत तेरे टुकड़े होंगे', 'कश्मीर की आज़ादी लेकर रहेंगे', 'कश्मीर में जनमत संग्रह होना चाहिए', 'कश्मीर मांगे आज़ादी' जैसे नारे भी हो सकते हैं? इतना ही नहीं, क्या दलित और अल्पसंख्यक के अधिकारों की रक्षा की आड़ में नफरत फ़ैलाने वाले बयान, लेख, साहित्य आदि भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में आता है?




सवाल बहुत ही गंभीर है और आज यह सवाल उठना इसलिए लाज़िमी है क्योंकि नक्सलवाद से संपर्क और हिंसा फ़ैलाने के आरोप में महाराष्ट्र पुलिस ने जिन पांच बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया है उसे बचाने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर टिप्पणी करते हुए माननीय उच्चतम नयायालय ने कहा है कि केवल सत्तापक्ष से अलग विचारधारा रखने पर कोई दोषी नहीं हो जाता है. सभी को अभिव्यक्ति की आज़ादी है और यह लोकतंत्र में 'सेफ्टी वाल्व' की तरह काम करता है. इतना ही नहीं माननीय न्यायालय ने आगे कहा कि अगर इस आज़ादी पर नकेल कसने की कोशिश की गई तो यह 'प्रेशर कुकर' की तरह फट भी सकता है.


वस्तुतः माननीय उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी को कोई चैलेंज तो नहीं कर सकता परन्तु इस मुद्दे पर एक गंभीर बहस तो हो सकती है और अवश्य होनी भी चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो भविष्य में एक राष्ट्र के रूप में भारत का नामोनिशान मिट जाएगा. इसके गंभीर कारण हैं. वर्तमान में अभिव्यक्ति की आज़ादी अपने दायरे से बहुत आगे निकल चुकी है और ख़तरनाक अवस्था में पहुंच चुकी है. यह तब हो रहा है जब देश में एक राष्ट्रवादी सरकार है और वामपंथ जैसे दकियानूसी विचारधारा का देश से सफाया हो रहा है. आज़ाद भारत के 72 वर्षों में जब तक देश में कांग्रेस और अन्य मिलीजुली पार्टियों की सरकार रही तब तक वामपंथी विचारधारा को भी फलने-फूलने का मौका मिलता रहा. या यूँ कहा जा सकता है कि कांग्रेस वामपंथी विचारधारा को ऑक्सीजन देती रही. इस ऑक्सीजन के पीछे की अपनी एक अलग ही राजनीति है. इस राजनीति की सबसे बड़ी पहचान पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के सामजिक और आर्थिक हालात हैं. अब हम इसे संक्षेप में समझने की कोशिश करते हैं.



आज़ाद भारत के 72 वर्षों में जब तक देश में कांग्रेस और अन्य मिलीजुली पार्टियों की सरकार रही तब तक वामपंथी विचारधारा को भी फलने-फूलने का मौका मिलता रहा. या यूँ कहा जा सकता है कि कांग्रेस वामपंथी विचारधारा को ऑक्सीजन देती रही.



दलित, शोषित, वंचित और गरीबों की दुर्दशा पर राजनीति करने वाली वामपंथी पार्टियाँ हमेशा से अपने वोट बैंक को पिछड़ा बनाए रखने की हिमायती रही है. शिक्षा जैसे मूल अधिकारों से भी इस विचारधारा ने अपने कैडर और वोट बैंक को दूर रखा. उनके बीच वे केवल मार्क्सवादी और नक्सलवादी ज्ञान का प्रचार-प्रसार करते रहे. वामपंथियों ने अपने निचले स्तर के कैडर और वोट बैंक को बाहरी दुनिया से अलग रखा. आदिवासियों में नक्सलवाद का बीज पनपने का यही सबसे बड़ा कारण रहा. वामपंथियों ने उनके दिमाग में यह भर दिया कि अगर वे बाहरी लोगों के संपर्क में आएंगे तो वे लोग उनके बहू-बेटियों की अस्मत से खेलेंगे, उनकी जमीन हड़प लेंगे, जंगल पर कब्ज़ा कर लेंगे. इन सभी का डर दिखा कर मार्क्सवादियों ने अनपढ़ और गरीब आदिवासीयों को हथियार उठाने पर मजबूर कर दिया और उन बेचारों पर नक्सली होने का ठप्पा लग गया. एक तरफ जहाँ ये वामपंथी विचारक और सियासतदान गरीबों को और गरीब बनाने पर तुले हुए थे वहीँ दूसरी ओर वे खुद शहरों में मौज की जिन्दगी जीने में मस्त थे. इसी बीच इन्होंने दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में अपनी पैठ बनाई और उसे मार्क्सवाद या यूँ कहें नक्सलवादी विचारधारा का पाठशाला बना दिया और वहां से दनादन तथाकथित बुद्धिजीवी पैदा होने लगे जो आज पूरे देश में हमारे सामाजिक तानेबाने को तहस-नहस करने को तुले हुए हैं.



यहां कहना गलत नहीं होगा कि वामपंथी विचारधारा का कांग्रेस की अर्ध-समाजवादी विचारधारा ने भी खूब लाभ उठाया. गरीबी हटाने के नाम पर कांग्रेस गरीबों को 60 साल तक बेवकूफ बनाती रही और सत्ता के शीर्ष पर बैठी रही. परन्तु जैसे ही देश में सामाजिक और आर्थिक विकास की किरण फूटी, वामपंथी क्या कांग्रेस भी उसके प्रताप से नहीं बच सकी. 



यहां कहना गलत नहीं होगा कि वामपंथी विचारधारा का कांग्रेस की अर्ध-समाजवादी विचारधारा ने भी खूब लाभ उठाया. गरीबी हटाने के नाम पर कांग्रेस गरीबों को 60 साल तक बेवकूफ बनाती रही और सत्ता के शीर्ष पर बैठी रही. परन्तु जैसे ही देश में सामाजिक और आर्थिक विकास की किरण फूटी, वामपंथी क्या कांग्रेस भी उसके प्रताप से नहीं बच सकी. आज हालात सबके सामने है. वामपंथ तो देश में अपनी अंतिम श्वांस गिन रहा है और जहाँ तक कांग्रेस की बात है तो वह भी अब हासिये पर है. देश-दुनिया को पता है कि दो दशक से अधिक समय तक वामपंथ के चंगुल में फंसे रहे पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के सामाजिक और आर्थिक हालात कैसे हैं. दोनों राज्य अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी आदि के दलदल में आकंठ तक डूबे रहे. सरकारी छत्रछाया में पले और फुले-फले ट्रेड यूनियन की दहशत से राज्य से ज्यादातर उद्योगों का पलायन हो गया. गरीबों का शोषण करने के लिए वामपंथी गुंडे सरकारी छत्रछाया में गांव-गांव, गली-गली अपने गुर्गों के साथ दहशत मचाते रहे. मजबूरन दो दशक तक घोर अन्धकार के युग में दोनों राज्य की जनता को अपना जीवन गुजारना पड़ा. अंततः देश-दुनिया में हो रहे सामाजिक-आर्थिक विकास और उच्च जीवन स्तर से प्रभावित होकर दोनों राज्यों की जनता ने वामपंथी सरकारों भारी जनमत से सत्ता से बाहर कर दिया. पश्चिम बंगाल को वामपंथ के दलदल से निकले सात साल से अधिक हो गए हैं वहीँ त्रिपुरा की जनता ने इसी वर्ष वामपंथ को बाहर का रास्ता दिखा उसकी राजनीति कि चूल हिला दी है. 


अब अपनी लुप्त होती पहचान को बचाने के लिए वामपंथी नेतृत्व 'शहरी नक्सलवाद' का सहारा ले रही है. इसी क्रम में वह छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहने उन बुद्धिजीवियों का भी सहारा ले रही है जिन्हें एक्टिविस्ट के नाम पर विदेशों से भारी धन प्राप्त होता है. भारत में अस्थिरता का माहौल बनाए रखने के लिए ये विदेशी एजेंसियां विभिन्न सामाजिक योजनाओं, मानवाधिकारों, स्वास्थ्य सेवाओं आदि के बहाने इन एक्टिविस्टों को धन मुहैया कराते हैं और वे बुद्धिजीवी का ढ़ोंग रचते हुए सरकार पर गाहे-बेगाहे हमले करते रहते हैं. इनमें कई बड़े नाम हैं जैसे तीस्ता सीतलवाड़, अरुन्धति रॉय, रोमिला थापर, रामचंद्र गुहा, प्रकाश आंबेडकर. 'शहरी नक्सलवाद' या यूँ कहें नक्सली माफिया समाज में इतने अंदर तक घुसपैठ बना चुका है जिससे अब न तो मीडिया अछूता है और न अदालत. इन अतिवादी और विनाशकारी वामपंथी नक्सलियों की मीडिया में वकालत राजदीप सरदेसाई कर रहे हैं वहीँ अदालत में इनकी वकालत प्रशांत भूषण और कांग्रेस पार्टी में वामपंथी विचार के पोषक अभिषेक मनु सिंघवी कर रहे हैं.


अब अंत में सवाल यह उठता है कि क्या देश और समाज के विरुद्ध आपतिजनक अभिव्यक्ति को 'लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व' माना जाना चाहिए? वामपंथ के सूर्यास्त से घोर हताशा और निराशा में डूबी एक्टिविस्ट अरुन्धति रॉय और गौतम नवलखा जब कश्मीर में जनमत संग्रह की वकालत करते हैं तो क्या यह भी अभिव्यक्ति की आज़ादी की श्रेणी में आएगा या फिर देशद्रोह की श्रेणी में? क्या देश की शीर्ष अदालत इस पर भी गौर करेगी या फिर उसे इसके विरुद्ध किसी जनहित याचिका का इंतजार रहेगा? जब जेएनयू में सिरफिरे वामपंथी विचारधारा के छात्र 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' और 'हम लेकर रहेंगे आज़ादी' के नारे लगाते हैं तो क्या यह अभिव्यक्ति भी 'लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व' है? इन सब सवालों पर गंभीर मंथन होना अति आवश्यक है और यह भी आवश्यक है कि जब तक ऐसी विनाशकारी ताकतें समाज में जहर घोल सकें उससे पूर्व सभी राष्ट्रवादी ताकतों को एकजुट होकर इनके मंसूबों पर कड़ा प्रहार करना होगा.