ये बुद्धिजीवी हैं या हिंसा और आतंक के पोषक?

पुणे की महाराष्ट्र पुलिस द्वारा देश के विभिन्न भागों से गिरफ्तार किए गए पांच एक्टिविस्टों की गिरफ़्तारी से तो यही साबित होता है कि जब ये अपनी विनाशकारी विचारधारा में पिछड़ने लगे और अपनों के बीच लोकप्रियता खोने लगे तो इन्होंने देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचकर अपनी रक्तरंजित और पिछड़ेपन की पहचान बन चुके वामपंथी और माओवादी विचारधारा को दुनिया के सामने लाने का घिनौना कृत्य किया है.




देश से वामपंथ का तम्बू उखड़ चुका है. इस तम्बू के अंतिम कील के तौर पर अब केवल डगमगाता केरल बचा है. यहां भी वह अपने विरोधियों की हत्या कर अपनी जमीन बचाने की असफल कोशिश कर रहा है. इनका संसद में प्रतिनिधित्व भी नाममात्र का बचा है. फिर इस विचारधारा का सबसे चर्चित चेहरा माओवाद और नक्सलवाद का दायरा भी सिमटने लगा है. सरकार की कोशिशों और विकास की बयार के बीच या तो नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं या फिर सुरक्षाबलों द्वारा इनका तेजी से सफाया किया जा रहा है. ऐसे में माओवादी चिंतकों और उनके हमदर्दों और समर्थकों का बिलबिलाना स्वाभाविक है. अपनी इसी बिलबिलाहट और छटपटाहट में ये चिन्तक शहरों की ओर भाग रहे हैं और शहरी संभ्रांत वर्ग के पीठ पीछे छिपकर सरकार और व्यवस्था पर हमले कर रहे हैं. कहा भी गया है कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर भागता है. अगर ये चिन्तक या यूँ कहें तथाकथित बुद्धिजीवी हिंसा में लिप्त अपने कैडर के बीच में जंगलों में रहते तो संभवतः कानून और सुरक्षा एजेंसियों से बचे रहते. परन्तु शहरी वर्ग में घुसपैठ और अपनी विचारधारा को बचाने की जदोजहद के लालच में शहर की ओर भागना और संवाद के लिए इंटरनेट जैसे तकनीक का उपयोग इन चिंतकों के लिए भारी पड़ गया और वे कानून और सुरक्षा एजेंसियों की राडार पर आ गए. वर्तमान में हुई गिरफ़्तारी इन चिंतकों की ओछी महत्वाकांक्षा और समाज में नफरत फ़ैलाने के कारण हुआ है.


गौरतलब है कि पिछले वर्ष दिसम्बर में पुणे के पास स्थित भीमा कोरेगांव में दलितों और सवर्णों के बीच तकरार होने की वजह से भयंकर उत्पात मचा था. पुलिस की जांच और खुफिया तंत्र कि रिपोर्ट के मुताबिक हिंसा से पहले दलितों की एक बैठक हुई थी और उस बैठक में विवादास्पद और उकसाने वाले भाषण दिए गए थे. इसके बाद इस बैठक से जुड़े पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस वर्ष मई में पुलिस ने गिरफ्तार कर और उनसे पूछताछ कर आगे की जांच शुरू की थी. मई महीने में हुई गिरफ़्तारी के दौरान ही पुलिस को विल्सन नामक एक कार्यकर्ता के दिल्ली स्थित निवास से एक सनसनीखेज पत्र बरामद किया गया था जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की हत्या किए जाने की योजना का जिक्र था. इस योजना को मूर्तरूप देने के लिए पैसों की व्यवस्था आदि के लिए तथाकथित बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों से सलाह मांगी गई थी. माना जाता है कि अभी जिन पांच तथाकथित बुद्धिजीवियों की गिरफ़्तारी हुई है उनका उल्लेख उस पत्र में है.


गिरफ्तार हुए तथाकथित बुद्धिजीवियों में हैदराबाद के कवि और लेखक वारवरा राव, वकील सुधा भारद्वाज, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंज़ाल्विस शामिल हैं. गौरतलब है कि गिरफ़्तार किए गए सभी लोग मानवाधिकार और अन्य मुद्दों को लेकर सरकार के आलोचक रहे हैं. सुधा भारद्वाज वकील और ऐक्टिविस्ट हैं. गौतम नवलखा मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार हैं. वरवर राव वामपंथी विचारक और कवि हैं, जबकि अरुण फ़रेरा वकील हैं. वरनॉन गोंज़ाल्विस लेखक और कार्यकर्ता हैं.


यहां यह भी उल्लेखनीय है कि उपरोक्त सभी का नाम वामपंथी विचारक और लेखक के तौर पर लिया जाता है. आलिशान जीवन जीने वाले ये सभी शोषित, गरीब, आदिवासी, दलित आदि के लिए चिंतन करते हैं और अपनी विचारधारा को बलपूर्वक सही साबित करने के लिए ये उन गरीबों और शोषितों को हिंसा के लिए उकसाते हैं. आज का नक्सलवाद और माओवाद का जो जहर देश में फैला है वह सब इन्हीं विचारकों, चिंतकों और तथाकथित बुद्धिजीवियों की ही देन है.



हैरानी की कोई बात नहीं होगी जब जल्दी ही हाथ में डफली लिए, दाढ़ी बढ़ाये और जींस-कुर्ता पहने इनके वामपंथी पाठशाला के छात्र भी सड़क पर 'आज़ादी हम लेकर रहेंगे' के सुर के साथ बौखलाते नज़र आएंगे.



अब आगे देखिये, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली कहावत भी चरितार्थ हो रही है. पाँचों की गिरफ़्तारी के बाद इनके जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी, विचारक और चिन्तक अपने बिल से निकल आए हैं और लाल तख्ती लेकर सड़क पर मार्च करने को उतारू हो चुके हैं. इन सभी को अब संविधान खतरे में नज़र आने लगा है. देश में अघोषित आपातकाल का ये गाना गाने लगे हैं. हैरानी की कोई बात नहीं होगी जब जल्दी ही हाथ में डफली लिए, दाढ़ी बढ़ाये और जींस-कुर्ता पहने इनके वामपंथी पाठशाला के छात्र भी सड़क पर 'आज़ादी हम लेकर रहेंगे' के सुर के साथ बौखलाते नज़र आएंगे. इन वामपंथियों का यह तमाशा कोई पहली बार नहीं होगा. पहले भी कई मौकों पर यह ऐसा कर चुके हैं क्योंकि इनका न तो भारतीयता से और न ही भारतीय समाज की समरसता से कोई नाता रहा है. अपने वैचारिक पाठशाला जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में तो इन्होंने सारी सीमाओं को पार करते हुए कश्मीर की आज़ादी और भारत तेरे टुकड़े होंगे का विनाशकारी नारा तो लगा ही चुके हैं. इन सबके वाबजूद भी जब ये अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हुए तो अब दलितों और पिछड़े वर्ग के कंधे पर बन्दूक रखकर अपनी खुनी विरासत को बचाने में लग गए हैं. भीमा कोरेगांव की दुखदाई घटना इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों की पाशविक दिमाग की उपज थी.


राजीनीतिक तौर पर वैचारिक लड़ाई एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान होती है परन्तु जब यही विचार एक प्रकार से नफरत में और हिंसक गतिविधियों में परिवर्तित हो जाए तो यह किसी भी राष्ट्र और राज्य व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध होने लगता है. विल्सन के ख़त से स्पष्ट होता है कि देश में भारतीय जनता पार्टी के विस्तार से वामपंथी कैडर हताशा में है और बौखलाया हुआ है. इसके लिए वह कुछ भी कर गुजरने को तैयार है. यहां तक कि वह प्रधानमंत्री पर मानव बम से हमला करने का मंसूबा पाले हुए है. एक ऐसा हमला जो अभी तक केवल दुनिया के खूंखार आतंकी संगठन ही सोचते रहे हैं. अगर वामपंथ का चरित्र इतना नीचे तक गिर चुका है तो जल्दी ही देश की सुरक्षा एजेंसियों को इनके पूरे कैडर को नेस्तानाबूद करने की तैयारी कर लेनी होगी वर्ना आतंक का एक और घिनौना चेहरा हम सबके सामने होगा.


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